चिर रमणीय बसंत ग्रीष्म वर्षा ऋतु सुखमय
स्निग्ध शरद हेमंत शिशिर रमणीय असंशय!
मधु केंद्रों को घेर बैठते ज्यों नित मधुवर
ज्ञान इंद्रियों पर स्थित सोम पिपासु निरंतर!—
ध्यान मग्न होकर जीवन मधु करते संचय
अर्पित कर कामना इन्द्र तुम में होकर लय!
रथ पर रख ज्यों पैर बैठ जाते वे तन्मय
ऋजु पथ से तुम ले जाते उनको ज्योतिर्मय!
जिसकी महिमा गाते हिमवत् सिन्धु नदी नद
जिसकी बाहु दिशाओं सी फैली हैं कामद,
जहाँ अमृत आनंद ज्योति के झरते निर्झर
मुक्त सोम रस पीकर पाते धाम वे अमर!
ब्रह्म लोक वह, सूर्य समान अमित ज्योतिर्मय
मनोगगन द्यौ विस्तृत सागर सदृश अनामय!
पृथ्वी से अनंत गुण वृद्ध इन्द्र जो ईश्वर
दिव्य शक्तियाँ उसकी अगणित किरणें भास्वर!