वे चहक रहीं कुंजों में चंचल सुंदर
चिड़ियाँ, उर का सुख बरस रहा स्वर-स्वर पर!
पत्रों-पुष्पों से टपक रहा स्वर्णातप
प्रातः समीर के मृदु स्पर्शों से कँप-कँप!
शत कुसुमों में हँस रहा कुंज उडु-उज्वल,
लगता सारा जग सद्य-स्मित ज्यों शतदल।
है पूर्ण प्राकृतिक सत्य! किन्तु मानव-जग!
क्यों म्लान तुम्हारे कुंज, कुसुम, आतप, खग?
जो एक, असीम, अखंड, मधुर व्यापकता
खो गई तुम्हारी वह जीवन-सार्थकता!
लगती विश्री औ’ विकृत आज मानव-कृति,
एकत्व-शून्य है विश्व मानवी संस्कृति!
रचनाकाल: मई’१९३५