‘ मोर को
मार्जार-रव क्यों कहते हैं मां ‘
‘ वह बिल्लीव की तरह बोलता है,
इसलिए ! ‘
‘ कुत्ते् की तरह बोलता
तो बात भी थी !
कैसे भूंकता है कुत्ताे,
मुहल्लां गूंज उठता है,
भौं-भौं !’
‘ चुप रह !’
‘ क्योंह मां ?…
बिल्लीा बोलती है
जैसे भीख मांगती हो,
म्या उं..,म्या उं..
चापलूस कहीं का !
वह कुत्तेी की तरह
पूंछ भी तो नहीं हिलाती’ –
‘ पागल कहीं का !’
‘ मोर मुझे फूटी आंख नहीं भाता,
कौए अच्छेो लगते हैं !’
‘ बेवकूफ !’
‘ तुम नहीं जानती, मां,
कौए कितने मिलनसार,
कितने साधारण होते हैं !…
घर-घर,
आंगन,मुंडेर पर बैठे
दिन रात रटते हैं
का, खा, गा …
जैसे पाठशाला में पढ़ते हों !’
‘ तब तू कौओं की ही
पांत में बैठा कर !’
‘ क्यों नहीं, मां,
एक ही आंख को उलट पुलट
सबको समान दृष्टि से देखते हैं ! –
और फिर,
बहुमत भी तो उन्हींे का है , मां !’
‘ बातूनी !’