वह विजन चाँदनी की घाटी
छाई मृदु वन-तरु-गन्ध जहाँ,
नीबू-आड़ू के मुकुलों के
मद से मलयानिल लदा वहाँ!
सौरभ-श्लथ हो जाते तन-मन,
बिछते झर-झर मृदु सुमन-शयन,
जिन पर छन, कम्पित पत्रों से,
लिखती कुछ ज्योत्सना जहाँ-तहाँ!
आ कोकिल का कोमल कूजन,
उकसाता आकुल उर-कम्पन,
यौवन का री वह मधुर स्वर्ग,
जीवन बाधाएँ वहाँ कहाँ?
रचनाकाल: मई’१९३५