वन-वन, उपवन–
छाया उन्मन-उन्मन गुंजन,
नव-वय के अलियों का गुंजन!
रुपहले, सुनहले आम्र-बौर,
नीले, पीले औ ताम्र भौंर,
रे गंध-अंध हो ठौर-ठौर
उड़ पाँति-पाँति में चिर-उन्मन
करते मधु के वन में गुंजन!
वन के विटपों की डाल-डाल
कोमल कलियों से लाल-लाल,
फैली नव-मधु की रूप-ज्वाल,
जल-जल प्राणों के अलि उन्मन
करते स्पन्दन, करते-गुंजन!
अब फैला फूलों में विकास,
मुकुलों के उर में मदिर वास,
अस्थिर सौरभ से मलय-श्वास,
जीवन-मधु-संचय को उन्मन
करते प्राणों के अलि गुंजन!
रचनाकाल: जनवरी’ 1932