मुसकुरा दी थी क्या तुम, प्राण!
मुसकुरा दी थी आज विहान?
आज गृह-वन-उपवन के पास
लोटता राशि-राशि हिम-हास,
खिल उठी आँगन में अवदात
कुन्द-कलियों की कोमल-प्रात।
मुसकुरा दी थी, बोलो, प्राण!
मुसकुरा दी थी तुम अनजान?
आज छाया चहुँदिशि चुपचाप
मृदुल मुकुलों का मौनालाप,
रुपहली-कलियों से, कुछ-लाल,
लद गईं पुलकित पीपल-डाल;
और वह पिक की मर्म-पुकार
प्रिये! झर-झर पड़ती साभार,
लाज से गड़ी न जाओ, प्राण!
मुसकुरा दी क्या आज विहान?
रचनाकाल: अक्तूबर’ १९२७