बढ़ो अभय, विश्वास-चरण धर!
सोचो वृथा न भव-भय-कातर!
ज्वाला के विश्वास के चरण,
जीवन मरण समुद्र संतरण,
सुख-दुख की लहरों के शिर पर
पग धर, पार करो भव-सागर।
बढ़ो, बढ़ो विश्वास-चरण धर!
क्या जीवन? क्यों? क्या जग-कारण?
पाप-पूण्य, सुख-दुख का वारण?
व्यर्थ तर्क! यह भव लोकोत्तर
बढ़ती लहर, बुद्धि से दुस्तर!
पार करो विश्वास-चरण धर!
जीवन-पथ तमिस्रमय निर्जन,
हरती भव-तम एक लघु किरण,
यदि विश्वास हृदय में अणुभर
देंगे पथ तुमको गिरि-सागर।
बढ़ो अमर, विश्वास-चरण धर!
रचनाकाल: मई’१९३५