वेद ऋचाएँ अक्षर परम व्योम में जीवित
निखिल देवगण चिर अनादि से जिसमें निवसित!
जिसे न अनुभव अक्षर परम तत्व का पावन
मंत्र पाठ से नहीं प्रकाशित होता वह मन!
जिसे ज्ञात वह सत्य वही रे विप्र विपश्चित
ज्योतित उसका बहिरंतर आनंद रूप नित!
एक अंश मानव का मात्र बहिर्मुख जीवन
शेष अंश प्रच्छन्न मनस् में रहते गोपन!
अंतर्जीवन से जो मानव हो संयोजित
पूर्ण बने वह स्वर्ग बने यह वसुधा निश्चित!
अन्न प्राण मन अंतर्मन से हों परिपोषित
सत्य मूल से युक्त ज्योति आनंद हों स्रवित!
तीन अंश वाणी के उर की गुहा में निहित
अधिमानस से दिव्य ज्ञान हो उनका प्रेरित
बहिरंतर मानव जीवन हो सत्य समन्वित,
अंतर्वैभव से भौतिक वैभव हो दीपित!
आत्मा का ऐश्वर्य भूत सौन्दर्य हो महत्
ऊषाओं के पथ से उतरे पूषण का रथ!