[अपनी कॉटेज के प्रति]
मेरे निकुंज, नक्षत्र वास!
इस छाया मर्मर के वन में
तू स्वप्न नीड़ सा निर्जन में
है बना प्राण पिक का विलास!
लहरी पर दीपित ग्रह समान
इस भू उभार पर भासमान,
तू बना मूक चेतनावान
पा मेरे सुख दुख, भाव’च्छ्वास!
आती जग की छवि स्वर्ण प्रात,
स्वप्नों की नभ सी रजत रात,
भरती दश दिशि की चारवात
तुझमें वन वन की सुरभि साँस!
कितनी आशाएँ, मनोल्लास,
संकल्प महत, उच्चाभिलाष,
तुझमें प्रतिक्षण करते निवास,–
है मौन श्रेय साधन प्रयास!
तू मुझे छिपाए रह अजान
निज स्वर्ण मर्म में खग समान,
होगा अग जग का कंठ गान
तेरे इन प्राणों का प्रकाश!
मेरे निकुंज, नक्षत्र वास!
रचनाकाल: १९३२