नीली, पीली औ’ चटकीली
पंखों की प्रिय पँखड़ियाँ खोल,
प्रिय तिली! फूल-सी ही फूली
तुम किस सुख में हो रही डोल?
चाँदी-सा फैला है प्रकाश,
चंचल अंचल-सा मलयानिल,
है दमक रही दोपहरी में
गिरि-घाटी सौ रंगों में खिल!
तुम मधु की कुसुमित अप्सरि-सी
उड़-उड़ फूलों को बरसाती,
शत इन्द्र चाप रच-रच प्रतिपल
किस मधुर गीति-लय में जाती?
तुमने यह कुसुम-विहग लिवास
क्या अपने सुख से स्वयं बुना?
छाया-प्रकाश से या जग के
रेशमी परों का रंग चुना?
क्या बाहर से आया, रंगिणि!
उर का यह आतप, यह हुलास?
या फूलों से ली अनिल-कुसुम!
तुमने मन के मधु की मिठास?
चाँदी का चमकीला आतप,
हिम-परिमल चंचल मलयानिल,
है दमक रही गिरि की घाटी
शत रत्न-छाय रंगों में खिल!
–चित्रिणि! इस सुख का स्रोत कहाँ
जो करता निज सौन्दर्य-सृजन?
’वह स्वर्ग छिपा उर के भीतर’–
क्या कहती यही, सुमन-चेतन?
रचनाकाल: मई’१९३५