झर पड़ता जीवन-डाली से
मैं पतझड़ का-सा जीर्ण-पात!–
केवल, केवल जग-कानन में
लाने फिर से मधु का प्रभात!
मधु का प्रभात!–लद लद जातीं
वैभव से जग की डाल-डाल,
कलि-कलि किसलय में जल उठती
सुन्दरता की स्वर्णीय-ज्वाल!
नव मधु-प्रभात!–गूँजते मधुर
उर-उर में नव आशाभिलास,
सुख-सौरभ, जीवन-कलरव से
भर जाता सूना महाकाश!
आः मधु-प्रभात!–जग के तम में
भरती चेतना अमर प्रकाश,
मुरझाए मानस-मुकुलों में
पाती नव मानवता विकास!
मधु-प्रात! मुक्त नभ में सस्मित
नाचती धरित्री मुक्त-पाश!
रवि-शशि केवल साक्षी होते
अविराम प्रेम करता प्रकाश!
मैं झरता जीवन डाली से
साह्लाद, शिशिर का शीर्ण पात!
फिर से जगती के कानन में
आ जाता नवमधु का प्रभात!
रचनाकाल: अप्रैल’१९३५