अहे विश्व! ऐ विश्व-व्यथित-मन!
किधर बह रहा है यह जीवन?
यह लघु-पोत, पात, तृण, रज-कण,
अस्थिर-भीरु-वितान,
किधर?–किस ओर?–अछोर,–अजान,
डोलता है यह दुर्बल-यान?
मूक-बुद्बुदों-से लहरों में
मेरे व्याकुल-गान
फूट पड़ते निःश्वास-समान,
किसे है हा! पर उनका ध्यान!
कहाँ दुरे हो मेरे ध्रुव!
हे पथ-दर्शक! द्युतिमान!
दृगों से बरसा यह अपिधान
देव! कब दोगे दर्शन-दान?
रचनाकाल: अगस्त १९२३