स्वाभाविक नारी जन की लज्जा से वेष्टित,
नित कर्म निष्ठ, अंगो की हृष्ट पुष्ट सुन्दर,
श्रम से हैं जिसके क्षुधा काम चिर मर्यादित,
वह स्वस्थ ग्राम नारी, नर की जीवन सहचर।
वह शोभा पात्र नहीं कुसुमादपि मृदुल गात्र,
वह नैसर्गिक जीवन संस्कारों से चालित;
सत्याभासों में पली न छायामूर्ति मात्र,
जीवन रण में सक्षम, संघर्षों से शिक्षित।
वह वर्ग नारियों सी न सुज्ञ, संस्कृत कृत्रिम,
रंजित कपोल भ्रू अधर, अंग सुरभित वासित;
छाया प्रकाश की सृष्टि, –उसे सम ऊष्मा हिम,
वह नहीं कुलों की काम वंदिनी अभिशापित!
स्थिर, स्नेह स्निग्ध है उसका उज्जवल दृष्टिपात,
वह द्वन्द्व ग्रंथि से मुक्त मानवी है प्राकृत,
नागरियों का नट रंग प्रणय उसको न ज्ञात,
संमोहन, विभ्रम, अंग भंगिमा में अपठित।
उसमें यत्नों से रक्षित, वैभव से पोषित
सौन्दर्य मधुरिमा नहीं, न शोभा सौकुमार्य,
वह नहीं स्वप्नशायिनी प्रेयसी ही परिचित,
वह नर की सहधर्मिणी, सदा प्रिय जिसे कार्य।
पिक चातक की मादक पुकार से उसका मन
हो उठता नहीं प्रणय स्मृतियों से आंदोलित,
चिर क्षुधा शीत की चीत्कारें, दुख का क्रंदन
जीवन के पथ से उसे नहीं करते विचलित।
है माँस पेशियों में उसके दृढ़ कोमलता,
संयोग अवयवों में, अश्लथ उसके उरोज,
कृत्रिम रति की है नहीं हृदय में आकुलता,
उद्दीप्त न करता उसे भाव कल्पित मनोज!
वह स्नेह, शील, सेवा, ममता की मधुर मूर्ति,
यद्यपि चिर दैन्य, अविद्या के तम से पीड़ित,
कर रही मानवी के अभाव की आज पूर्ति
अग्रजा नागरी की,—यह ग्राम वधू निश्चित।
रचनाकाल: दिसंबर’ ३९