आज शिशु के कवि को अनजान
मिल गया अपना गान!
खोल कलियों के उर के द्वार
दे दिया उसको छबि का देश;
बजा भौरों ने मधु के तार
कह दिए भेद भरे सन्देश;
आज सोये खग को अज्ञात
स्वप्न में चौंका गई प्रभात;
गूढ़ संकेतों में हिल पात
कह रहे अस्फुट बात;
आज कवि के चिर चंचल-प्राण
पागए अपना गान!
दूर, उन खेतों के उस पार,
जहाँ तक गई नील-झंकार,
छिपा छाया-बन में सुकुमार
स्वर्ग की परियों का संसार;
वहीं, उन पेड़ों में अज्ञात
चाँद का है चाँदी का वास,
वहीं से खद्योतों के साथ
स्वप्न आते उड़-उड़ कर पास।
इन्हीं में छिपा कहीं अनजान
मिला कवि को निज गान!
रचनाकाल: जनवरी’ १९२६