मंजरित आम्र-वन-छाया में
हम प्रिये, मिले थे प्रथम बार,
ऊपर हरीतिमा नभ गुंजित,
नीचे चन्द्रातप छना स्फार!
तुम मुग्धा थी, अति भाव-प्रवण,
उकसे थे, अँबियों-से उरोज,
चंचल, प्रगल्भ, हँसमुख, उदार,
मैं सलज,–तुम्हें था रहा खोज!
छनती थी ज्योत्स्ना शशि-मुख पर,
मैं करता था मुख-सुधा पान,–
कूकी थी कोकिल, हिले मुकुल,
भर गए गन्ध से मुग्ध प्राण!
तुमने अधरों पर धरे अधर,
मैंने कोमल वपु-भरा गोद,
था आत्म-समर्पण सरल, मधुर,
मिल गए सहज मारुतामोद!
मंजरित आम्र-द्रुम के नीचे
हम प्रिये, मिले थे प्रथम बार,
मधु के कर में था प्रणय-बाण,
पिक के उर में पावक-पुकार!
रचनाकाल: मई’१९३५