यूँ तसव्वुर में बसर रात किया करते थे
लब ने खुलते थे मगर बात किया करते थे

हाए वो रात कि सोती थी ख़ुदाई सारी
हम किसीदर पे मुनाजात किया करते थे

याद है बंदगी-ए-अहल-ए-मोहब्बत जिस पर
आप भी फ़ख़-ओ-मबाहात किया करते थे

हम कभी मोतकिफ़-कुंज-ए-हरम हो कर भी
सजदा-ए-पीर-ए-ख़राबात किया करते थे

याद करता है उसी अहद-ए-गुज़िश्‍ता को ‘शफ़ीक़’
जब तुम अल्ताफ़ ओ इनायात किया करते थे

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