तालिबे-दीद पर आँच आए यह मंज़ूर नहीं।
दिल में है वरना वो बिजली जो सरे-तूर नहीं॥
दिल से नज़दीक है, आँखों से भी कुछ दूर नहीं।
मगर इस पर भी मुलाक़ात उन्हें मंज़ूर नहीं॥
छेड़ दे साज़े-अनलहक़ जो दुबारा सरे-दार।
बज़्मे-रिन्दाँ में अब ऐसा कोई मन्सूर नहीं॥
हमको परवाना-ओ-बुलबुल की रक़ाबत से ग़रज़?
गुल में वह रंग नहीं, शमअ़ में वो नूर नहीं॥
कभी ‘कैसे हो सफ़ी?’ पूछ तो लेता कोई।
दिल-दही का मगर इस शहर में दस्तूर नहीं॥