उर की यमुना भर उमड़ चली,
तू जल भरने को आ न सकी;
मैं ने जो घाट रचा सरले!
उस पर मंजीर बजा न सकी।
दिशि-दिशि उँडेल विगलित कंचन,
रँगती आई सन्ध्या का तन,
कटि पर घट, कर में नील वसन;
कर नमित नयन चुपचाप चली,
ममता मुझ पर दिखला न सकी;
चरणों का धो कर राग नील-
सलिला को अरुण बना न सकी।
लहरें अपनापन खो न सकीं,
पायल का शिंजन ढो न सकीं,
युग चरण घेरकर रो न सकीं;
विवसन आभा जल में बिखेर
मुकुलों का बन्ध खिला न सकी;
जीवन की अयि रूपसी प्रथम!
तू पहिली सुरा पिला न सकी।