[१]
तृषित! धर धीर मरु में।
कि जलती भूमि के उर में
कहीं प्रच्छन्न जल हो।
न रो यदि आज तरु में
सुमन की गन्ध तीखी,
स्यात, कल मधुपूर्ण फल हो।
[२]
नए पल्लव सजीले,
खिले थे जो वनश्री को
मसृण परिधान देकर;
हुए वे आज पीले,
प्रभंजन भी पधारा कुछ
नया वरदान लेकर।
[३]
दुखों की चोट खाकर
हृदय जो कूप-सा जितना
अधिक गंभीर होगा;
उसी में वृष्टि पा कर
कभी उतना अधिक संचित
सुखों का नीर होगा।
[४]
सुधा यह तो विपिन की,
गरजती निर्झरी जो आ
रही पर्वत-शिखर से।
वृथा यह भीति घन की,
दया-घन का कहीं तुझ
पर शुभाशीर्वाद बरसे।
[५]
करें क्या बात उसकी
कड़क उठता कभी जो
व्योम में अभिमान बनकर?
कृपा पर, ज्ञात उसकी,
उतरता वृष्टि में जो सृष्टि
का कल्याण बनकर।
[६]
सदा आनन्द लूटें,
पुलक-कलिका चढ़ा या
अश्रु से पद-पद्म धोकर;
तुम्हारे बाण छूटे,
झुके हैं हम तुम्हारे हाथ
में कोदण्ड होकर।