अचेतन मृत्ति, अचेतन शिला।
रुक्ष दोनों के वाह्य स्वरूप,
दृश्य – पट दोनों के श्रीहीन;
देखते एक तुम्हीं वह रूप
जो कि दोनों में व्याप्त, विलीन,
ब्रह्म में जीव, वारि में बूँद,
जलद में जैसे अगणित चित्र।
ग्रहण करती निज सत्य-स्वरूप
तुम्हारे स्पर्शमात्र से धूल,
कभी बन जाती घट साकार,
कभी रंजित, सुवासमय फूल।
और यह शिला-खण्ड निर्जीव,
शाप से पाता-सा उद्धार,
शिल्पि, हो जाता पाकर स्पर्श
एक पल में प्रतिमा साकार।
तुम्हारी साँसों का यह खेल,
जलद में बनते अगणित चित्र!
मृत्ति, प्रस्तर, मेघों का पुंज
लिये मैं देख रहा हूँ राह,
कि शिल्पी आयेगा इस ओर
पूर्ण करने कब मेरी चाह।
खिलेंगे किस दिन मेरे फूल?
प्रकट होगी कब मूर्ति पवित्र?
और मेरे नभ में किस रोज
जलद विहरेंगे बनकर चित्र?
शिल्पि, जो मुझमें व्याप्त, विलीन,
किरण वह कब होगी साकार?