होती अयाँ विसाल में क्या उस निगार पर
गुज़री फ़िराक़ में जो दिले- बे-क़रार पर

आता है किस को रंज ग़मे-दोस्तदार पर
खंदा है बर्क़ गिरयाए-अब्र-बहार पर

दुनिया की आफ़तें हैं ग़रीबों के वास्ते
आँधी का ज़ोर है मिरी शम्ऐ-मज़ार पर

गुलशन में आमद-आमदे-फ़सले-बाहर है
बुलबुल क़फ़स में मारती है बार बार पर

हम भी दुआएं करते रहे हैं बहार की
ऐ बागबां हमारा भी हक़ है बहार पर

एहले-ज़माना पर मुतअज़्ज़ब हूँ ऐ ‘वफ़ा’
मरते हैं क्यों ये ज़िन्दगी-ए-मुस्तआर पर।

By shayar

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