हम रोबे हुस्ने-यार से तुतला के रह गये
शिकवे ज़बां तक आये मगर आ के रह गये
आया न कोई ले के ख़ते-शौक़ का जवाब
सब नामाबर न जाने कहां जा के रह गये
ईफ़ाए-वादा का न दिला पाए वो यक़ीन
खाई हुई थी एक क़सम खा के रह गये
वो फूल मेरी आरजुओं की है इक मिसाल
खिलने से पेश्तर ही जो मुरझा के रह गये
शामिल वो कारवां में हुए किस बिसात पर
जो लोग रास्ते ही में सुस्ता के रह गये
नग़मा तो इक तरफ न हुआ नाला भी रवां
सब तार साज़े-शौक़ के थर्रा के रह गये
यूँ सा लगा कि मुझ पे घड़ों पानी पड़ गया
जब अर्ज़-ए-मुद्दआ पे वो शर्मा के रह गये
महफ़िल में कर रहे थे वो ग़ैरों से शोखियाँ
मुझ पर पड़ी निगाह तो शर्मा के रह गये
उट्ठे थे ले के दावा-ए-अज़मत जो ऐ ‘वफ़ा’
अजदाद के अरूज़ पे इतरा के रह गये।