सरमायाए-सुकूं दिले-उम्मीदवार का
इक आसरा है वा’दाए-बे-ऐतबार का

बोसा! फिर उस निगारे-सरापा वक़ार का
दीवानापन है काम बड़े होशियार का

ताज़ा जिगर के दाग़ हुए हिज़्रे-यार में
निखरा ख़जां में रंग हमारी बहार का

क्या जाने के जाए न जाए ख़जां का दौर
और जा के मौसम आए न आए बहार का

आंखों पे है यकीन न कानों पर ऐतबार
वो हाल पूछते हैं दिले-बेक़रार का

अपने ही दिल पे जब्र किए जा रहा हूँ मैं
बस ये है तूल-ओ-अर्ज़ मिरे इख़्तियार का

ताले सितम-ज़दों की ज़बानों पे डालना
अदना कमाल है निगह-ए-शर्मसार का

क़िस्मत में तीरगी थी जो मरने के बाद भी
गुल हो गया चराग़ हमारे मज़ार का

रूदाद ये है मुख़्तसरन ऐ ‘वफ़ा’ मिरी
मारा हुआ हूँ गर्दिशे-लैलो-निहार का।

By shayar

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