लबों लर जाने-ज़ार आती हुई मालूम होती है
ये दुनिया अब मुझे जाती हुई मालूम होती है

ये मंज़िल कौन सज है या इलाही ना मुरादी की
तबीयत कुछ सुकूं पाती हुई मालूम होती है

हवाए-क़हर का तूफां बपा होने को है शायद
फज़ाए दहर थर्राती हुई मालूम होती है

भयानक किस क़दर है उफ़ दरख़्शानी सितारों की
शबे-ग़म पांव फैलाती हुई मालूम होती है

उमीद-ओ-यास ने आपस में कर रखी है साज़िश क्या
न ये जाती न वो आती हुई मालूम होती है

ख़ुदा जाने हो क्या तदबीर इस ख़ाबे-परेशां की
ज़मीं गर्दू से टकराती हुई मालूम होती है

अजब क्या है जो इस दौर-ए-हवस में ऐ ‘वफ़ा’ हर सू
महब्बत ठोकरें खाती हुई मालूम होती है।

By shayar

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