महफ़िल में इधर और उधर देख रहे हैं
हम देखने वालों की नज़र देख रहे हैं
आलम है तिरे परतव-ए-रुख़ से ये हमारा
हैरत से हमें शम्स-ओ-क़मर देख रहे हैं
भागे चले जाते हैं उधर को तो अजब क्या
रुख़ लोग हवाओं का जिधर देख रहे हैं
होगी न शब-ए-ग़म तो क़यामत से इधर ख़त्म
हम शाम ही से राह-ए-सहर देख रहे हैं
वा’दे पे वो आएँ ये तवक़्क़ो नहीं हम को
रह रह के मगर जानिब-ए-दर देख रहे हैं
शिकवा करें ग़ैरों का तो किस मुँह से करें हम
बदली हुई यारों की नज़र देख रहे हैं
शायद कि इसी में हो ‘वफ़ा’ ख़ैर हमारी
बरपा जो ये हंगामा-ए-शर देख रहे हैं।