नहीं नहीं नहीं अब वो पलट के आने का
ज़माने वालों में चर्चा है जिस ज़माने का

नहीं नहीं वो नहीं जिस का ख़ाब देखा था
कुछ और रंग है बदले हुए ज़माने का

हमः ग़ुरूर, सरापा फ़तूर महज़ फुज़ूर
ख़ुदा से दूर है इंसान इस ज़माने का

तिरी फ़िज़ूल सराई से उठता है ये सवाल
कि तू अजूबा है ऐ शैख़ किस ज़माने का

रहेंगे हो के ज़माने की बेरुखी का शिकार
जो लोग रुख़ नहीं पहचानते ज़माने का

न इस लिए जो ‘वफ़ा’ के कमाल से मुन्कर
की ये ग़रीब है शायर तिरे ज़माने का

By shayar

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