दयार-ए-हुस्न में पाबंदी-ए-रस्म-ए-वफ़ा कम है
बहुत कम है बहुत कम है ब-हद्द-ए-इंतिहा कम है

जफ़ा-ए-बे-सबब कम है कि जौर-ए-ना-रवा कम है
तिरी बे-दाद ऐ ज़ालिम न होने पर भी क्या कम है

कमाल-ए-दिलबरी में कौन सी तेरी अदा कम है
न शोख़ी कम हया से है न शोख़ी से हया कम है

ब-कसरत सैर की है हर रविश गुलज़ार-ए-आलम की
यहाँ रंग-ए-मोहब्बत है बहुत बू-ए-वफ़ा कम है

ख़ुदा के नाम पर दस्त-ओ-गिरेबाँ हैं ख़ुदा वाले
बहुत है जिस क़दर ज़िक्र-ए-ख़ुदा ख़ौफ़-ए-ख़ुदा कम है

अज़ल से होती आई है अबद तक होती जाएगी
गुनहगार-ए-वफ़ा पर जिस क़दर भी हो जफ़ा कम है

दुआ को हाथ क्यूँ उट्ठे मिरे तीमार-दारों के
ज़बाँ से क्यूँ नहीं कहते कि उम्मीद-ए-शफ़ा कम है

रहे क्यूँकर न बद-ज़न वो शह-ए-हुस्न ऐ ‘वफ़ा’ मुझ से
बड़ा नादान है सुनता बहुत है देखता कम है।

By shayar

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