जब बहार आई तो जंजीर-बपा रक्खा है
अक़रबा ने मुझे दीवाना बना रक्खा है
हम-सुख़न ग़ैर से रहना है क़रीने-अख़लाक़
मुझ से कम बोलने का नाम हया रक्खा है
रोज़ होती है हज़ारों ही घरों में शबे-ग़म
शमअ-रुयों ने मुझे अंधेर मचा रक्खा है
माया-ए-ज़ीस्त है बाक़ी दिले-यक-क़तरा-ए-खूं
सो वो आंखों से टपकने को बचा रक्खा है
दागे-हसरत कि है वीराना-ए-दिल में रौशन
मुर्दा उम्मीदों की तुर्बत पे दिया रक्खा है
बज़्म में दाद न देना है ख़िलाफ़े-आदाब
ऐ ‘वफ़ा’ वरना तिरे शेरों में क्या रक्खा है।