ग़म से उनके भी जिगर दाग़ दाग़ पाए हैं
देखने में जो बशर बाग़ बाग़ पाए हैं
दिल का हश्र क्या हुआ ये ख़बर नहीं मगर
उस गली में सुर्ख़ सुर्ख़ कुछ सुराग़ पाए हैं
हर तरफ़ थे कल जहां बुलबुलों के चहचहे
उस चमन में क़ाबिज़ आज बूम-ओ-ज़ाग़ पाए हैं
आदमीयत आजकल, बेज़रों में हो तो हो
एहले-ज़र तो सब के सब बद दिमाग़ पाए हैं
रात थी बरात की उन की एक एक रात
जिन के मर्कद ऐ ‘वफ़ा’ बे-चराग़ पाए हैं।