ग़मे-हिज्र की इंतिहा हो गई है
तबीयत सुकूं-आश्ना हो गई है

फुगां बन के उट्ठी थी दिल से शिकायत
मगर लब पर आ कर दुआ हो गई है

क़दम बढ़ के लेना था वाइज़ के साक़ी
बड़ी आज तुझ से ख़ता हो गई है

लबों की ख़मोशी से अब कुछ न होगा
नज़र सर ब-सर इल्तिजा हो गई है

रवा थी न बे-दाद एहले-वफ़ा पर
रवा होते होते रवा हो गई है

तिरे राज़े-उल्फ़त को रुसवा न कर दे
जो हालत तिरी ऐ ‘वफ़ा’ हो गई है।

By shayar

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *