खाते हैं वो ग़ैरों की क़सम और ज़ियादा
मज़बूर हुए जाते हैं हम और ज़ियादा
बस ऐ फ़लके-पीर कि बाक़ी नहीं मुझ को
अब ताक़ते-बर्दाश्ते-ग़म और ज़ियादा
जब चलने से माज़ूर रहा नाक़ा-ए-लैला
उठने लगा मजनूँ का क़दम और ज़ियादा
जो सूरते-जादा कभी उफ़ तक नहीं करते
होते हैं वो पामाले-सितम और ज़ियादा
वो सामने हैं गंजे-शहीदां के नज़ारे
हां चलिए ज़रा चार क़दम और ज़ियादा
देता हूँ ‘वफ़ा’ उस सितम-आरा को दुआएं
अल्लाह करे हुस्ने-सितम और ज़ियादा।