ख़ाक होता ग़म ग़लत ऐ रश्क़े गुल फ़ुर्क़त की रात
मुझ को जामे-ज़हर था हर जामे-मुल फ़ुर्कत की रात

छा गयी गर्दू पे ज़ुल्मत की घटाएं चार सू
हो गईं शमएं-सितारों की भी गुल फ़ुर्कत की रात

ता न सुन पाए मिरे नाले वो मस्ते-ख़ाबे-नाज़
शहर में बरपा रहा शोरे-दुहल फ़ुर्कत की रात

वक़्त आ पड़ने पे कोई भी न काम आया मिरे
दे गई ज़ालिम अजल भी मुझ को फ़ुर्कत की रात

झिलमिलाने तो लगा था शाम ही से ऐ ‘वफ़ा’
हो गया आख़िर चिराग़े-उम्र गुल फ़ुर्क़त की रात।

By shayar

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