कैसी हवाए-ग़म चमने-दिल में चल गई
सुब्हे-निशात शामे-अलम में बदल गई
उफ़ रे मआले-हसरते-तामीरे-आशियाँ
जिस शाख़ पर निगाह थी वो शाख़ जल गई
ज़ाहिर में देखने को है दुनिया वही मगर
असलीयत अब यही है जो दिल से निकल गई
किस दिन रक़ीब से न लड़ी वो निगाह-नाज़
किस दिन ‘वफ़ा’ छुरी न मिरे दिल पे चल गई।