कैसा पुर-आशोब है दौरे-क़मर आज कल
दुश्मने-जाने-बशर क्यों है बशर आजकल

चलती हैं अपने यहां खून की पिचकारियां
जलते हैं घी के दिये ग़ैर के घर आज कल

क़द्रे-हुनर है किसे, क़द्र-हुनर हैं कहां
कोड़ियों में हैं गिरां ला’लो-गुहर आज कल

देख रहा हूँ मगर कर नहीं सकता बयां
हो रहे हैं जो सितम शामो-सहर आज कल

आशिक़े-ज़ार आप का, नाम है शायद ‘वफ़ा’
फिरता है इक बे-नवा ख़ाक-ब-सर आज कल।

By shayar

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