काम ले फ़िक्र-सुख़न में दिल से भी जिन का दिमाग़
     इस ज़माने में हैं ऐसे ऐ ‘वफ़ा’ उस्ताद कम।

  का’बा ओ बुत कदा ओ दैर ओ कलीसा हो कर
  हम जो पहुंचे तो दरे-पीरे मुगां तक पहुँचे।

दूसरा मिसरा सुन कर वफ़ा साहिब ने सरे-मुशायरा कहा ‘बेटा’ दूसरा मिसरा यूँ पढ़ो-

‘आख़िरे-कार दरे पीरे-मुगां तक पहुँचे’

सभी ने इस्लाह की तारीफ़ की, बेताब साहब ने !

अफ़साना गो है रौनके-फ़स्ले बहार का
हर तार मेरे पैरहने-तार तार का।

जाता है बार बार गरेबां को हाथ क्यों
आ तो नहीं गया कहीं मौसम बहार का।

अल्लाह रे इश्क़ में मिरी बे-इख़्तियारियां
हद तो है ये कि दिल भी नहीं इख़्तियार का।

By shayar

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