कभी हम भी ऐ दिल थे स्याने बहुत
कि थे अपनी कोठी में दाने बहुत

धुआं छा गया और अफ़लास का
बढ़े जिस क़दर कारखाने बहुत

इन्हीं में निहां तो नहीं दाम भी
गुलिस्तां में बिख़रे हैं दाने बहुत

अबस है हक़ीक़त की इन में तलाश
ज़बानों पे हैं जो फ़साने बहुत

तलाशे-जवाज़े-सितम क्या ज़रूर
अगर ख़ू बुरी हो बहाने बहुत

ये सुनते रहे हर ज़माने में हम
कि अच्छे थे अगले ज़माने बहुत

नहीं तेरे कूचे में जीना नसीब
तो मरने के हम को ठिकाने बहुत

हो अंधा ही कोई तो बैठे यहां
तिरी अंजुमन में हैं काने बहुत

ग़ज़ल चंद सादा से शेरों की थी
मगर दाद पाई ‘वफ़ा’ ने बहुत।

By shayar

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