मैं न यह पथ जानती री!
धर्म हों विद्युत् शिखायें,
अश्रु भले बे आज अग-जग वेदना की घन-घटायें!
सिहरता मेरा न लघु उर,
काँपते पग भी न मृदुतर,
सुरभिमय पथ में सलोने स्वजन को पहचानती री!
ज्वाल के हों सिन्धु तरलित,
तुहिन-विजडित मेरु शत-शत,
पार कर लूँगी वही पग-चाप यदि कर दें निमंत्रित
नाप लेगा नभ विहग-मन
बाँध लेगा प्रलय मृदु तन,
किसलिये ये फूल-सोदर शूल आज बखानती री?