रसवन्ती (कविता)
अरी ओ रसवन्ती सुकुमार ! लिये क्रीड़ा-वंशी दिन-रात पलातक शिशु-सा मैं अनजान, कर्म के कोलाहल…
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Read Moreहँस उठी कनक-प्रान्तर में जिस दिन फूलों की रानी, तृण पर मैं तुहिन-कणों की पढ़ता…
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Read Moreजो त्रिकाल-कूजित संगम है, वह जीवन-क्षण दो, मन-मन मिलते जहाँ देवता! वह विशाल मन दो।…
Read Moreतुम जीवन की क्षण-भंगुरता के सकरुण आख्यान! तुम विषाद की ज्योति! नियति की व्यंग्यमयी मुस्कान!…
Read Moreतुम जीवन की क्षण-भंगुरता के सकरुण आख्यान! तुम विषाद की ज्योति! नियति की व्यंग्यमयी मुस्कान!…
Read Moreबाग में खिला था कहीं अल्हड़ गुलाब एक, गरम लहू था, अभी यौवन के दिन…
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