जनतन्त्र का जन्म
सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी, मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है; दो राह,समय…
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Read Moreहठ कर बैठा चान्द एक दिन, माता से यह बोला, सिलवा दो माँ मुझे ऊन…
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Read Moreमैं पर्वतारोही हूँ। शिखर अभी दूर है। और मेरी साँस फूलनें लगी है। मुड़ कर…
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