ये न कहना कि अजी क्या है भला चोरी में,
लो सुनाता हूँ तुम्हें जो मज़ा है चोरी में।
देखा संसार का सब भेद ढका चोरी में,
और संसार का करतार छुपा चोरी में।
देह तो जड़ है इसी वास्ते प्रत्यक्ष भी है,
इसमें चैतन्य जो बैठा है कहाँ चोरी में।
‘बिन्दु’ वेद ने भी जिसका कभी पाया न पता,
ग्वाल-बालों को गोकुल में मिला चोरी में।