प्रेम ही है अपना सिद्धांत,
जिसने बना दिया है जीवन अम्र कल्प कल्पान्त।
जप तप योग समाधि यत्न सब किए रहे उद्भ्रान्त,
मोहन मधुर मति लिखते ही हुए सकल भ्रम शान्त।
नहीं वृत्तियाँ बदली बस कर निर्जन वन एकान्त,
मन एकाग्र हुआ जब देखा रसिकजनों का प्रान्त।
संयम नियम योग हथ साधन करते रहे नितान्त,
बदल गई रुचि पढकर गणिका-अजामिल वृतान्त।
फूले-फिरते हैं जिस पर उद्धव से ज्ञान महान्त,
ब्रज गोपिका दृग ‘बिन्दु’ से भा रही वेदान्त॥