दृग तीर तेरे मोहन! जिस दिल को ढूँढते हैं।
हम उन तीरों के तेरे विस्मिल को ढूँढते हैं।
वो लाखवार तीरे मिजगा से कट चुके हैं ।
हिम्मत ये है फिर भी कातिल को ढूँढते है।
पीकर जो मये उल्फ़त बेहोश हैं बेखुद हैं।
मंज़िल में पहुच कर भी मंज़िल को ढूँढते हैं।
हम इश्क समुन्दर में दिल को खो चुके हैं।
हर ‘बिन्दु’ में आँखों के उस दिल को ढूँढते हैं।