जिधर मैं देखता हूँ मुझको नज़र वो घनश्याम आ रहा है।
जगत कि हर एक वस्तु में प्रकाश अपना दिखा रहा है॥
ग्रहादि नक्षत्र रवि सुधाकर निशा दिवस वायु व्योम जलधर।
अनेक रंगों के रूप धरकर सभी के दिल को लुभा रहा है॥
सघन निर्जन में वन चमन में धरा में धामों में धान्य थल में।
हरेक तन में हरेक मन में वो नन्द-नन्दन स्मर रहा है।
कभी वो माखन चुरा रहा है कभी वो गायें चरा रहा है।
कभी वो बंसी बजा रहा है कभी गीता सुना रहा है॥
कभी मिला वो कृष्ण राम बनकर हरेक अवतार नाम बनकर।
तो ‘बिन्दु’ भी उसका धाम बनकर दृगों में उसको बसा रहा है॥