क्या ही मजे से बजती है घनश्याम की बंसी।
मोहन बजा दो फिर वही विश्राम की बंसी।
बंसी की मधुरता का मज़ा मिलता है मुझको,
जिस वक्त बजाता हूँ तेरे नाम की बंसी।
अधरों पै उसे रखके बजाते थे जिधर तुम,
बजती थी उधर प्रेम के पैगाम की बंसी।
उस बाँस की बंसी की कशिश का था ये दावा,
आशिक थी बेशुमार तने चाम की बंसी।
बंसी को बजाते हुए दृग ‘बिन्दु’ में तुम हो;
जब बजने लगी आख़िरी अंजाम की बंसी।

By shayar

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