कुछ दशा अनोखी उनकी बतलाते हैं।
जो मनमोहन के प्रेमी कहलाते हैं॥
जब से दिलदार हुआ सांवलिया प्यारा।
तब से छूता जग का सम्बन्ध सहारा॥
हर बार हर जगह रुक कर यही पुकारा।
है किधर छिपा दिलवर घनश्याम हमारा॥
क्या खबर उन्हें हम कहाँ किधर जाते हैं॥
जो मनमोहन के प्रेमी कहलाते हैं॥1॥
परवाह नहीं गर तन के वस्त्र फटे हैं।
बिखरे हैं सर के बाल लटपटे हैं॥
सूखे टुकड़े हीं खाकर दिवस कटे हैं।
फिर भी स्नेह पथ अलमस्त डटे हैं॥
वन वृक्षों को निज सुख-दुःख समझाते हैं।
जो मनमोहन के प्रेमी कहलाते हैं॥2॥
जग भोग और उद्योग रोग से माने॥
झोपड़े और उद्यान रोग से माने॥
पकवान मिले या मिले चने के दाने।
दोनों में खुश हैं मोहन के मस्ताने॥
भ्रम शोक मोह मन में न कभी लाते हैं।
जो मनमोहन के प्रेमी कहलाते हैं॥3॥
मिल गाई जहाँ पर जगह पड़े रहते हैं।
सर्दी गर्मी बरसात धूप सहते हैं॥
खामोश किसीसे कभी न कुछ कहते हैं।
रस सिन्धु दृगों से प्रेम ‘बिदु’ पीते हैं॥
नाचते कभी हँसते रोते गाते हैं।
जो मनमोहन के प्रेमी कहलाते हैं॥4॥