दिल मेरा तेरा ताब-ए-फ़रमाँ है, क्या करूँ
अब तेरा कुफ़्र ही मिरा ईमाँ है, क्या करूँ

बा-होश हूँ मगर मिरा दामन है चाक-चाक
आलम ये देख देख के हैराँ है, क्या करूँ

हर तरह का सुकून है हर तरह का है कैफ़
फिर भी ये मेरा क़ल्ब परेशाँ है, क्या करूँ

कहता नहीं हूँ और ज़माना है बा-ख़बर
चेहरे से दिल का हाल नुमायाँ है, क्या करूँ

दामन करूँ न चाक ये मुमकिन तो है मगर
मुज़्तर हर एक तार-ए-गरेबाँ है, क्या करूँ

सादा-सा इक वरक़ हूँ किताब-ए-हयात का
हसरत से अब न अब कोई अरमाँ है, क्या करूँ

हर सम्त पा रहा हूँ वही रंग-ए-दिल-फ़रेब
हाथों में कुफ़्र के मिरा ईमाँ है, क्या करूँ

दाग़ों का क़ल्ब-ए-ज़ार से मुमकिन तो है इलाज
उन के ही दम से दिल में चराग़ाँ है. क्या करूँ

इक बे-वफ़ा के वास्ते से सब कुछ लुटा दिया
‘बहज़ाद’ अब न दीन न ईमाँ है, क्या करूँ

By shayar

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