मृत्यु-भीत शत-लक्ष मानवों की करुणार्द्र पुकार!
ढह पड़ना था तुम्हें अरी ! ओ पत्थर की दीवार!
निष्फल लौट रही थी जब मरनेवालों की आह,
दे देनी थी तुम्हें अभागिनि, एक मौज को राह ।

एक मनुज, चालीस कोटि मनुजों का जो है प्यारा,
एक मनुज, भारत-रानी की आँखों का ध्रुवतारा।
एक मनुज, जिसके इंगित पर कोटि लोग चलते हैं,
आगे-पीछे नहीं देखते, खुशी-खुशी जलते हैं ।

एक मनुज, जिसका शरीर ही बन्दी है पाशों में,
लेकिन, जो जी रहा मुक्त हो जनता की सांसों में।
जिसका ज्वलित विचार देश की छाती में बलता है,
और दीप्त आदर्श पवन में भी निश्चल जलता है।

कोटि प्राण जिस यशःकाय ऋषि की महिमा गाते हैं,
इतिहासों में स्वयं चरण के चिह्न बने जाते हैं।
वह मनुष्य, जो आज तुम्हारा बन्दी केवल तन से,
लेकिन, व्याप रहा है जो सारे भारत को मन से।

मुट्ठी भर हड्डियाँ निगलकर पापिनि, इतराती हो?
मुक्त विराट पुरुष की माया समझ नहीं पाती हो ?
तुम्हें ज्ञात, उर-उर में किसकी पीड़ा बोल रही है?
धर्म-शिखा किसकी प्रदीप्त गृह-गृह में डोल रही है?

किसके लिए असंख्य लोचनों से झरने है जारी?
किसके लिए दबी आहों से छिटक रही चिनगारी?
धुँधुआती भट्ठियाँ एक दिन फूटेंगी, फूटेंगी ;
ये जड़ पत्थर की दीवारें टूटेंगी, टूटेंगी।

जंजीरों से बड़ा जगत में बना न कोई गहना,
जय हो उस बलपुंज सिंह की, जिसने इनको पहना।
आँखों पर पहरा बिठला कर हँसें न किरिचोंवाले,
फटने ही वाले हैं युग के बादल काले-काले।

मिली न जिनको राह, वेग वे विद्युत बन आते हैं,
बहे नहीं जो अश्रु, वही अंगारे बन जाते हैं।
मानवेन्द्र राजेन्द्र हमारा अहंकार है, बल है,
तपःपूत आलोक, देश माता का खड्ग प्रबल है।

जिस दिन होगी खड़ी तान कर भृकुटी भारत-रानी
खड्ग उगल देना होगा ओ पिशाचिनी दीवानी !
घड़ी मुक्ति की नहीं टलेगी कभी किसी के टाले,
शाप दे गये तुम्हे, किन्तु, मिथिला के मरनेवाले ।

By shayar

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *