बाग में खिला था कहीं अल्हड़ गुलाब एक,
गरम लहू था, अभी यौवन के दिन थे;
ताना मार हँसा एक माली के बुढ़ापे पर,
“लटक रहे हैं कब्र-बीच पाँव इसके।”
चैत की हवा में खूब खिलता गया गुलाब,
बाकी रहा कहीं भी कसाव नहीं तन में।
माली को निहार बोला फिर यों गरूर में कि
“अब तो तुम्हारा वक्त और भी करीब है।”
मगर, हुआ जो भोर, वायु लगते ही टूट
बिखर गईं समस्त पत्तियाँ गुलाब की।
दिन चढ़ने के बाद माली की नज़र पड़ी,
एक ओर फेंका उन्हें उसने बुहार के।
मैंने एक कविता बना दी तथ्य बात सोच,
सुषमा गुलाब है, कराल काल माली है।