(नेपथ्य के भीतर से इतिहास गाता है।)
इतिहास के गीत
१
कल्पने! धीरे-धीरे बोल!
पग-पग पर सैनिक सोता है, पग-पग सोते वीर,
कदम-कदम पर यहाँ बिछा है ज्ञानपीठ गंभीर।
यह गह्वर प्राचीन अस्तमित गौरव का खँडहर है!
सूखी हुई सरिता का तट यह उजड़ा हुआ नगर है।
एक-एक कण इस मिट्टी का मानिक है अनमोल।
कल्पने! धीरे-धीरे बोल!
२
यह खँडहर उनका जिनका जग
कभी शिष्य और दास बना था,
यह खँडहर उनका, जिनसे
भारत भू-का इतिहास बना था।
कहते हैं पा चन्द्रगुप्त को
मगध सिन्धुपति-सा लहराया,
राह रोकने को पश्चिम से
सेल्यूकस सीमा पर आया।
मगधराज की विजय-कथा सुन
सारा भारतवर्ष अभय हो,
विजय किया सीमा के अरि को,
राजा चन्द्रगुप्त की जय हो।
(पट-परिवर्तन)
दृश्य ४
(मगध की राजधानी का राजपथ जहाँ-तहाँ फूलों के तोरण और बन्दनवार सजे हैं ठौर-ठौर पर मंगल-क्लश रखे हुए हैं तथा दीप जल रहे हैं सड़क के दोनों ओर के महल भी सुसज्जित दीखते हैं रास्ते पर नागरिक आनन्द की मुद्रा में आ रहे हैं-जा रहे हैं। नागरिकों का एक दल गाता हुआ प्रवेश करता है।)
नागरिकों का गीत
सब जय हो, चन्द्रगुप्त की जय हो!
एक जय हो उस नरवीर सिंह की, जिसकी शक्ति अपार,
जिसके सम्मुख काँप रहा थर-थर सारा संसार।
मेरिय-वंश अजय हो!
सब चन्द्रगुप्त की जय हो!
दूसरा जय हो उसकी, हार खड़ा जिसके आगे यूनान,
जिसका नाम जपेगा युग-युग सारा हिन्दुस्तान।
दिन-दिन भाग्य-उदय हो!
सब चन्द्रगुप्त की जय हो!
कोर जय हो बल-विक्रम-निधान की,
जय हो भारत के कृपाण की,
जय हो, जय हो मगधप्राण की!
सारा देश अभय हो,
चन्द्रगुप्त की जय हो!
तीसरा गली-गली में तुमुल रोर है, घर-घर चहल-पहल है,
जिधर सुनो, बस, उधर मोद-मंगल का कोलाहल है।
पहला घर-घर में, बस, एक गान है, सारा देश अभय हो!
घर-घर में, बस, एक तान है, चन्द्रगुप्त की जय हो!
(नेपथ्य में शंखध्वनि होती है।)
दूसरा देख रहे क्या वहाँ? शंख जय का वह उठा पुकार,
मगधराज का शुरू हो गया, स्यात्, विजय-दरबार!
चौथा हाँ, राजा जा चुके, जा चुके हैं चाणक्य प्रवीण,
सेल्यूकस के साथ गया है पण्डित एक नवीन।
पाँचवाँ और सुना, यह खास बात कहती थी मुझसे चेटी,
सेल्यूकस के साथ गई है सेल्यूकस की बेटी।
सब चलो, चलें, देखें दरबार!
चलो, चलें चलो, चलें!
(सब जाते हैं।)
(पट-परिवर्तन)
दृश्य ५
(चन्द्रगुप्त का राजदरबार सेल्यूकस, सेल्यूकस की युवती कन्या और मेगस्थनीज एक ओर बैठे हैं चन्द्रगुप्त, चाणक्य और सभासद् यथास्थान। चौथे दृश्य वाले नागरिक भी आते हैं।)
एक नागरिक (आपस में कानोंकान)
हैं महाराज खुद बोल
मत हिलो – डुलो,
चुपचाप सुनो!
चन्द्रगुप्त
मगध राज्य के सभासदो! पाटलीपुत्र के वीरों!
मगध नहीं चाहता किसी को अपना दास बनाना!
गुरु कहते हैं, दासभाव आर्यों के लिए नहीं है;
मैं कहता हूँ, मनुजमात्र ही गौरव का कामी है।
मैं न चाहता, हरण करें हम किसी देश का गौरव,
किसी जाति को जीत उसे फिर अपना दास बनायें।
उठी नहीं तलवार मगध की किसी लोभ, लालच से,
और न हम प्रतिशोध-भाव से प्रेरित हुए कभी भी।
न दासभावो आर्यस्य (कौटिल्य का अर्थशास्त्र)।
छिन्न-भिन्न है देश, शक्ति भारत की बिखर गई है;
हम तो केवल चाह रहे हैं उसको एक बनाना।
मृदु विवेक से, बुद्धि-विनय से, स्नेहमयी वाणी से,
अगर नहीं, तो धनुष-बाण से, पौरुष से, बल से भी।
ऋषि हैं गुरु चाणक्य; नीति उनकी हम बरत रहे हैं।
भरतभूमि है एक, हिमालय से आसेतु निरन्तर,
पश्चिम में कम्बोज-कपिश तक उसकी ही सीमा है।
किया कौन अपराध, गये जो हम अपनी सीमा तक?
अनाहूत हमसे लड़ने क्यों सेल्यूकस चढ़ आया?
मदोन्मत्त यूनान जानता था न मगध के बल को,
समझा था वह हमें छिन्न, शायद, पुरु-केकय-सा।
वह कलंक का पंक आज धुल गया देश के मुख से
हम कृतज्ञ हैं, सेल्यूकस ने अवसर हमें दिया है।
वीर सिकन्दर के गौरव का प्रतिभू सेल्यूकस था;
आज खड़ा है वह विपन्न, आहत-सा मगध सभा में;
उस बलिष्ठ शार्दूल-सदृश निष्प्रभ, हततेज, अकिंचन,
पर्वत से टकरा कर जिसने नख-रद तोड़ लिये हों;
उस भुजंग-सा जिसकी मणि मस्तक से निकल गई हो;
उस गज-सा जिस पर मनुष्य का अंकुश पड़ा हुआ हो।
सभा कहे, बरताव कौन-सा मगध करे इस अरि से।
प्रमुख सभासद्
महाराज ने कही न ये अपने मन की ही बातें,
यही भाव है मगध देश के धर्मशील जन-जनमें,
नहीं चाहते किसी देश को हम निज दास बनाना,
पर, स्वदेश का एक मनुज भी दास न कहीं रहेगा।
हम चाहते सन्धि; पर, विग्रह कोर्इ्र खड़ा करे तो,
उत्तर देगा उसे मगध का महा खड्ग बलशाली।
सेल्यूकस के साथ किन्तु, कैसा बरताव करें हम,
इसका उचित निदान बतायें गुरु चाणक्य स्वयं ही;
क्योंकि सभा अनुरक्त सदा है उनकी ज्ञान-विभा पर।
चाणक्य
आग के साथ आग बन मिलो,
और पानी से बन पानी,
गरल का उत्तर ह