चाहो उठना अगर तो उठो हो निडर,
समझो धड़ पर हमारे है सर ही नहीं।
अब नहीं वह रहा वक्त ऐ भाइयों,
जो मनु ने थी छोड़ी कसर ही नहीं।
जो मिटा नस्ल असली बने दोगले,
वह थे समझे कि हम-सा है नर ही नहीं।
देखे नफ़रत नज़र से जो निज कौम को,
मैं तो समझूं वह कौमी पिसर ही नहीं।
पर कमी एक भारी हमारी भी है,
आलिमों की जो करते क़दर ही नहीं।
यों ही रौनक घटे गुलशने-कौम की,
जो खिला गुल गंवाया, फिकर ही नहीं।
पर सबब है लाइल्मी का अफसोस यह,
मेरे कहने का होता असर ही नहीं।
दस्त बस्ता है “हरिहर” जगाता तुम्हें,
अब तो जागो हुआ क्या फजर ही नहीं?

By shayar

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